आजमगढ़ : गैर प्रांतों में रोजगार, भोजन एवं घर से महरूम हो चुके हजारों प्रवासी अपने गांव लौट रहे हैं । उनमें कोरोना का खौफ है तो भोजन व भविष्य की चिंताएं भी हैं। थके-मांदे बच्चों का हाथ पकड़े, पैदल या ट्रकों में ठूंस कर अपने गांव को लौटने को मजबूर हर प्रवासी की मंजिल सिर्फ एक है , किसी तरह अपने गांव पहुंच जाएं। कम से कम खाने,रहने की चिंता तो नहीं रहेगी। लौट रहे प्रवासी मजदूरों की अपनी दास्तां है। बुझे हुए चेहरे दर्द बयां कर रहे। दिहाड़ी मजदूरी करके जो कुछ कमाया उसे किराया में दे दिया। ट्रक वाले भी मौका देख ऐसा किराया मांग रहें हैं जो मजदूर तो छोड़िये हमारी आपकी कल्पना से बाहर हैं। पर ये मजदूर खतरों को जानते हुए भी हालात से मजबूर हैं और करें भी तो क्या। कंपनियां बंद हो गईं तो रोटी का रास्ता भी बंद हो गया। घर जाने की सोची तो बस से लेकर ट्रेन तक बंद मिला लेकिन मजदूरों के कदम रुके नहीं। जहाँ उनके रुट पर कोई भी ट्रक मिला तो मोलभाव कर उसी पर सवार हो लिए। राह में खतरों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि धूप के कारण गिट्टी गर्म हो गई। पूरा शरीर धूप में जल रहा है। अगर ट्रक ब्रेकर से गुजरा तो झटके से नीचे गिरने का खतरा। गिट्टी पर बैठने के बाद ऊपर से गुजर रहे विद्युत तार के स्पर्श में कहीं भी आ सकते हैं। शुक्रवार को ही जौनपुर में गिट्टी लदा ट्रक अनियंत्रित होकर पलटने से एक मजदूर की मौत हो गई जबकि सात घायल हुए। इसके बाद भी लगता है कि मजदूरों को जान की परवाह नहीं रही। दूसरा दर्दनाक पहलु यह भी है की एक एक मजदूर घर आने की जुगत में 03 हजार या इससे ज्यादा का किराया अदा कर रहा है जो कोरोना काल से पहले देश में घरेलु उड़ानों का किराया हुआ करता था , जान का जोखिम अलग से है।
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