बाल रोग विशेषज्ञ ने बताया 'एनसेफलाइटिस' के कारण और निवारण
आजमगढ़ :: अगर आपका बच्चा 15 वर्ष तक कि उम्र सीमा में है तो यह ध्यान दिया जाए कि वह जापानी बुखार की चपेट में आ सकता है। ऐसे में इससे बचाव का बेहतर माध्यम मच्छरदानी है। इसका संक्रमण वायरस के कारण होता है। यह किशोर के मन मस्तिष्क पर सीधे अटैक करता है।
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ डी डी सिंह ने बताया कि पाश्चात्य विज्ञान में 'एनसेफलाइटिस' नाम से जानी जाने वाली यह व्याधि प्रायः वायरस के संक्रमण के कारण होती है। इसमें मस्तिष्क में शोथ हो जाता है। यह संक्रमण केंद्रीय तंत्रिका तंत्र मेनेंजीज और मेरु रज्जु को भी प्रभावित कर सकता है। इसे प्रमस्तिष्क प्रदाह, सन्निपात ज्वर, इन्सेफेलाइटिस - लेथार्जिका आदि नामों से जाना जाता है। यह बीमारी विशेषकर 15 वर्ष आयु तक के बच्चों में मच्छरों से फैलने वाली है।
सर्वप्रथम जापान में इसका आक्रमण हुआ था। सन 1871 से 1935 के बीच यह रोग कई बार फैला। इसके पश्चात् एशिया के कई देशों में इसका प्रसार हुआ। वर्तमान में उत्तरी भारत में नदियो की बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में गन्दगी और मच्छरों की पैदाइश से यह तेजी से फैल रहा है।
कारण:
वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉ डी डी सिंह ने बताया कि भारत में मस्तिष्क ज्वर का सबसे प्रमुख कारण जापानीज इन्सेफेलाइटिस है। पिछले कई वर्षों में यह संक्रमित रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश में फैला है। इस रोग के कारण हजारों बच्चे शारीरिक व मानसिक अपंगता के शिकार हो गए। इस बीमारी के वायरस का होस्ट गलियों तथा मलिन बस्तियों में पाये जाने वाले सुअर होते हैं। यह रोग मुख्य रूप से क्यूलेक्स नमक मच्छर के काटने से मनुष्य में हो सकता है। क्यूलेक्स मच्छर प्रायः रुके हुए इकठ्ठा पानी में बढ़ते हैं। मच्छर के काटने से 5 से 15 दिन के बाद रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।
इस रोग का प्रकोप गर्मी एवं बरसात में बढ़ जाता है। इस रोग से ग्रसित 300-400 बच्चों में एक बच्चे को ही इसके घातक लक्षण होते हैं। यदि किसी को एक बार यह रोग हो गया, तो दुबारा होने की संभावना बहुत कम होती है।
पोलियो, हरपीस, मम्प्स, खसरा, मसूरिका आदि के आक्रमण के उपरांत इन्सेफेलाइटिस होने की सम्भावना रहती है।
लक्षण:
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ डी डी सिंह ने बताया कि जापानीज इन्सेफेलाइटिस का आरंभ अचानक होता है। शुरुआत में मरीज को जाड़ा लगकर बुखार आता है। सिरदर्द और थकान लगती है। तीव्र ज्वर, गर्दन में अकड़न और अंत में झटके आने लगते हैं। साथ ही शरीर में संवेदनहीनता और लकवे के लक्षण प्रकट हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त अर्ध मूर्छित अवस्था में रोगी के हाथ-पैरों में अजीब हरकत होने लगती है और अंत में मरीज बेहोश हो जाता है। विशेष परीक्षण पर सेरिब्रोस्पाइनल प्रेशर तथा उसका प्रोटीन भाग बढ़ा रहता है। रक्त में विशेष परिवर्तन नहीं होते। मस्तिष्क सुषुम्ना द्रव निर्मल तथा प्राकृत रहता है। लिम्फोसाइट्स की संख्या बढ़ जाती है।
रोग की पहचान:
डॉ डी डी सिंह ने बताया कि साधारण ज्वर, निद्रालुता, प्रकाश संत्रास, पक्षवध, एकांगघात आदि होने पर इसका अनुमान होता है।
कब्ज, मलमूत्र का अनियंत्रित उत्सर्ग, रक्त एवं सुषुम्ना द्रव में विशेष विकृति न होना इस रोग का निदर्शक माना जाता है।
2-4 दिन में ज्वर के बाद दोनों पार्श्वो में वर्तमघात का मिलना इस रोग का निर्णायक माना जाता है।
रोग के तीव्र होने पर रोगी बेचैन रहता है, चेहरे पर चिकनाहट रहती है, बोलने में कष्ट होता है, शक्तिक्षीण हो जाती है और साँस लेने में कष्ट होता है।
चिकित्सा:
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ डी डी सिंह ने बताया कि इस रोग की कोई विशेष चिकित्सा नहीं है। लाक्षणिक उपचार किया जाता है। पूर्ण विश्राम, तरल एवं इलेक्ट्रोलाइट के संतुलन को बनाए रखना, बेचैनी को दूर करने के लिए अवसादक औषधि (यथा: डायजेपाम या फेनिटोइन सोडियम) देना चाहिए। संक्रमण की स्थिति में एंटीबायोटिक्स का प्रयोग करना चाहिए। ज्वर तीव्र होने पर पेरासिटामोल देना चाहिए।
विशिष्ट चिकित्सा:
1. एंटीवायरल ट्रीटमेंट: एसिक्लोवीर 30 मिग्रा/किलो/दिन।
2. सेरिब्रल ओडिमा के लिए: मैनिटोल 20% एवं डेक्सामेथासोन।
3. कंवल्शन के लिए: डायजेपाम, फेनिटोइन
बचाव:
इस रोग से बचाव के लिए बाल रोग विशेषज्ञ डॉ डी डी सिंह ने बताया कि इस रोग का टीका हमारे देश में उपलब्ध है। 15 वर्ष तक के बच्चों को इसका टीका अवश्य लगवाना चाहिए।
मच्छरों की रोकथाम के उपाय करने चाहिए।
खेतों एवं आसपास घरों में कीटनाशक दवा का छिड़काव करना चाहिए।
रात को मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए।
घर के आसपास पानी इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए।
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