आजमगढ़. सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी सीक्रेट फाइलें सार्वजनिक कर दी हैं. वहीं आजमगढ़ के मुबारकपुर में रहने वाले 116 कर्नल निजामुद्दीन दावा करते हैं कि वह ऐसे अकेले जिंदा शख्स हैं जो नेताजी के करीबी थे.निजामुद्धीन के मुताबिक , वह नेताजी के पर्सनल बॅाडीगार्ड थे और वह उन्के साथ कई देशों की यात्रा भी कर चुके हैं उन्होने नेताजी के से जुड़े कई किस्से बताए...
उन्होंने 20 अगस्त 1947 को आखिरी बार नेताजी को बर्मा में छितांग नदी के पास नाव पर छोड़ा था। आजाद हिंद फौज के गठन के साथ नेताजी ने लोगों को रंगून में इकट्ठा होने को कहा। जुलाई 1943 को बर्मा, सिंगापुर, रंगून के प्रवासी-भारतीयों ने फंड के लिए 26 बोरे सोने, चांदी, हीरे-जवाहरात और पैसों से नेताजी को तराजू में तौल दिया था। 18 अगस्त 1945 को जिस वक्त नेताजी के मौत की खबर रेडियो पर चली, उसे वह नेताजी के साथ ही बैठकर बर्मा के जंगल में सुन रहे थे। एक दिन में जमा हुए थे 20 करोड़ रुपए।
निजामुद्दीन के मुताबिक, हमने पैसों को पीठ पर लादकर बोरों को कोषागार में रखा था। सबने शपथ ली थी कि देश की आजादी के लिए सब कुछ कुर्बान कर देंगे। लोगों का स्नेह देखकर नेताजी भावुक हो उठे थे। 9 जुलाई 1943 को नेताजी ने नारा दिया, 'करो सब न्योछावर बनो सब फकीर।' इस नारे के बाद रंगून में आजाद हिंद फौज बैंक में एक दिन में 20 करोड़ रुपए जमा हो गए। इसके बाद अक्टूबर 1943 में आजाद हिंद सरकार को मान्यता मिल गई।
नेताजी दिन में दो बार बदलते थे वेश-
नेताजी को धोती-कुर्ता और गुलाबी गमछा बहुत पसंद था। फौज के गठन के बाद वो सैनिक वेश में रहते थे। वह 24 घंटे में वो दो बार कपड़े बदलते थे। रात को सोते वक्त भी वो अक्सर बिना किसी को बताए अपनी जगह बदल देते थे। अपने अधिकारियों से भी वह सीक्रेट प्लान शेयर नहीं करते थे।
नेताजी की हिटलर से हुई थी मुलाकात-
मई 1942 में जर्मनी के बर्लिन में नेताजी की मुलाकात हिटलर से हुई थी। कर्नल निजामुद्दीन ने बताया कि जर्मनी के बर्लिन में नेताजी और हिटलर मिले थे। उस वक्त हिटलर ने मेरे बारे में जानकारी मांगी थी, तो नेताजी ने बताया था कि मेरे बॉडीगार्ड और अच्छे निशानेबाज हैं। हिटलर की किताब में भारतीयों पर गलत टिप्पणी की गई थी। नेताजी ने जब हिटलर से इस मुद्दे पर जिक्र किया तो हिटलर ने वादा किया कि अगले अंक में इस बात पर पूरा ध्यान दिया जाएगा। अगले अंक में हिटलर ने नेताजी की बात मानते हुए भारतीयों की भावनाओं की कद्र की। हिटलर ने अपनी हाथी दांत की बट वाली पिस्तौल और रेडियो गिफ्ट में दिया था। 1969 में कर्नल निजामुद्दीन का परिवार आजमगढ़ ढकवा गांव आया तो रेडियो और पिस्तौल को रिश्तेदारों ने रख लिया।
आजाद हिंद फौज की तनख्वाह और कैसी थी करंसी?
निजामुद्दीन बताते हैं कि आजाद हिंद फौज की करंसी को मांडले कहते थे। ये बर्मा में छपा करती थी। उनकी पगार उस वक्त मात्र 17 रुपए थी। फौज में एक पैसा में 2 कड़ा और दो कड़ा में चार पाई हुआ करता था। साल 1943 में आजाद हिंद बैंक ने पहली बार 500 के नोटों को छापा था, जिस पर नेताजी की तस्वीर बनी थी। उस दौरान लेफ्टिनेंट को 80 रुपए पगार मिलती थी। बर्मा में जो अधिकारी फौज में थे उनको 230 रुपए मिलते थे। लेफ्टिनेंट कर्नल को 300 रुपए मिलते थे।
नेता जी ने बनाया था अपना इंटेलिजेंस ग्रुप-
निजामुद्दीन बताते हैं कि नेताजी का गुप्तचर विभाग भी था, जिसके वो प्रमुख अधिकारी थे। गुप्तचर विभाग का नाम बहादुर ग्रुप था। इसमें बहुत कम अधिकारी और सैनिक थे। गुप्तचर विभाग सबसे अधिक सक्रिय ब्रिटिश जानकारियों को इकट्ठा करने में रहता था। इसका नेटवर्क कुछ महीनों में ही देश के कई इलाकों तक फैल गया। बहुत सी गुप्त बातों का जिक्र नेताजी रात को सोते वक्त करते थे। नेताजी कई बार पनडुब्बी से गुप्तचरों को सिंगापुर और बैंकाक भी भेजते थे।
क्या खाते थे नेताजी?
फौज के गठन के बाद नेताजी अक्सर सेना के सभी सदस्यों के साथ बैठकर खाते थे। उनके बर्तन भी अलग नहीं होते थे। कभी-कभी सैनिकों को अपने हाथों से खाना भी परोसने लगते थे। वैसे तो वो शाकाहारी थे मगर कभी-कभी मछली खा लेते थे। उन्हें चावल सबसे ज्यादा पसंद थे। सब्जियों में वो लौकी और भिंडी सबसे ज्यादा खाते थे। बंगला खीर खाने में उन्हें खूब आनंद आता था।
कहते हैं शोधकर्ता?
नेताजी के रहस्यों का वृतांत लिख रहे सहायक प्रो. राजीव श्रीवास्तव का कहना हैं कि कर्नल निजामुद्दीन नेताजी की आखिरी कड़ी हैं। उनके पास काफी ऐसी जानकारियां हैं जिसका जिक्र कहीं भी नहीं मिलता है। निजामुद्दीन नेताजी के अंगरक्षक के साथ बहादुर ग्रुप के खुफिया अधिकारी थे। नेताजी के रहस्यों को लेकर तमाम शोध हो रहे हैं, लेकिन कर्नल निजामुद्दीन तो साक्षात गवाह हैं। उनका पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस भी हाल ही में मिला है।
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