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आजमगढ़: अनंत यात्रा पर फौलादी इरादों वाले नेता जी.....

प्रतीक चित्र मुलायम सिंह यादव (बाएं), विजय यादव,वरिष्ठ पत्रकार

यहां विकास की हर ईंट पर मुलायम सिंह का नाम अंकित मिलेगा- विजय यादव, वरिष्ठ पत्रकार

आजमगढ़: उतार-चढ़ाव पर, जोखिम और संघर्ष पर, अभाव और अतिअभाव पर जब भी चर्चा होगी, नेताजी मुलायम सिंह यादव उसके केंद्र बिंदु होंगे। वंचित, उपेक्षित, मजबूर और गरीब किसानों का दर्द वही समझ सकता है जिसने स्वयं बेबसी झेली हो। नेताजी मुलायम सिंह यादव अपने आरंभिक जीवनकाल से ही इससे दो-चार हुए और ताजिंदगी उस दर्द को महसूस करते हुए जब भी मौका मिला तो उनके उत्थान के लिए जो भी करना पड़ा और जिस से भी टकराना पड़ा टकराए और किया। इसी के चलते उन्हें तमाम तरह के लांछन, लानत मलामत भी झेलनी पड़ी। उन्हें अपने शैक्षिक काल से राजनीति में प्रवेश करने तक तमाम तरह की कठिनाईयों और जलालत तक का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी उसके सामने घुटने नहीं टेके। इसी नाते नारा लगा कि ‘जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम मुलायम है’।
1977 में जब कांग्रेस की सरकार को हटाकर उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव की सरकार बनी तो उस में पहली बार मुलायम सिंह यादव को सहकारिता मंत्री के रूप में मौका मिला। तबसे उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आगे बढ़ते रहे। 1989 में जब जनता दल में रहना मुश्किल हुआ तो उन्होंने अपनी नई राह चुनी और समाजवादी पार्टी का गठन किया। उस समय तमाम भविष्य वक्ताओं की आशंकाओं को निर्मूल साबित करते हुए उन्होंने अपने अदम्य साहस और कठिन परिश्रम के बल पर पार्टी को न केवल खड़ा किया बल्कि इतनी मेहनत की कि उसे उत्तर प्रदेश की सत्ता में ला दिया और प्रदेश की सबसे बड़ी कुर्सी पर जा बैठे और वहीं से उन्होंने अपनी सोच और समझ में रंग भरने का काम शुरू कर दिया।
वह दौर वो था जब पूरे देश में सांप्रदायिकता पूरी तरह उभार पर थी और देश में भय और नफरत का माहौल बनाने के लिए कमंडल का सहारा लिया जा रहा था। ऐसे में मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में इन तत्वों के खिलाफ तनकर खड़े हुए जिसके नाते उन्हें ‘मुल्ला मुलायम सिंह’ का अनचाहा नाम तक दिया गया। लेकिन वह अपने विचारों से टस से मस नहीं हुए। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सांप्रदायिक और सामंती ताकतों के मन में उनके प्रति कितनी नफरत थी कि वह जानवरों की पीठ पर उनका नाम लिखकर अपनी नफरत का इजहार करने से बाज नहीं आए, लेकिन नेताजी अपने विचारों पर अडिग खड़े रहे और उनका यह वाक्य कि ‘परिंदा पर नहीं मार सकता’ एक सूत्र वाक्य बन गया।
बहरहाल उत्तर प्रदेश में उन्होंने तमाम झंझावातों के बीच तीन बार मुख्यमंत्री का पद संभाला और अपने फौलादी इरादों और कामों से प्रदेश ही नहीं देश के वंचितों, गरीबों, उपेक्षितों और किसानों में अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ने के साथ ही उनका बेतहाशा प्यार भी पाया। आजमगढ़ के संदर्भ में कहा जाए तो उनके लिए जैसे सैफई का महत्व था उससे रत्ती भर भी कम आजमगढ़ का नहीं था। यहां के विकास की हर ईंट पर मुलायम सिंह का नाम अंकित मिलेगा। वह चाहे आजमगढ़ को कमिश्नरी का दर्जा देने का मामला हो, चाहे जिला महिला अस्पताल हो, विकास भवन हो, आयुर्वेदिक चिकित्सालय हो, आजमगढ़ का रिंग रोड हो, सर्किट हाउस हो या राहुल प्रेक्षागृह के साथ तमाम सड़कें और पुल से लेकर अखिलेश यादव की सरकार तक में यहां के सांसद रहते हुए कलेक्ट्रेट भवन का निर्माण, अतरौलिया में 200 बेड का हॉस्पिटल, तरवा में हॉस्पिटल, रोडवेज का आधुनिक बस अड्डा, कलाभवन का पुनर्निर्माण, मुबारकपुर में रोडवेज बस अड्डा, बुनकरों के लिए विपणन केंद्र। कितना नाम लिया जाए कम ही होगा। यहां के जनप्रतिनिधियों ने जिस काम के लिए उनसे कहा कभी उन्हें ना सुनने को नहीं मिला। उस परियोजना को पर्याप्त धन के साथ स्वीकृति मिली।
कितनी ऐसी बातें हैं जो जेहन में आ रही हैं लेकिन मैं उन्हें अगर कागज पर उतारने बैठा तो शायद कई दिन लग जाएंगे। एक छोटी सी आपबीती के साथ बात को समाप्त करना चाहूंगा कि उनकी याददाश्त कितनी जबरदस्त थी कि 2009 में चुनाव के समय उर्दू अखबारों के कई संपादक उनसे मिलने के लिए गए, संयोग से उस समय मैं भी लखनऊ में था और मैं भी उनके साथ चला गया। वहां वारिसे-ए-अवध के कर्ताधर्ता एवं उर्दू अखबारों की यूनियन के अध्यक्ष मोहम्मद इशहाक जब मेरा परिचय कराने लगे और अखबार का नाम बताया तो नेता जी ने मीठी घुड़की देते हुए कहाकि यह तो आजमगढ़ का हिंदी का अखबार है, तुम उर्दू में क्यों परिचय करा रहे हो, यह सुनकर सब लोग दंग रह गए और नेताजी की याददाश्त की दाद देने लगे।
पहली बार मेरी उनसे आमने-सामने मुलाकात तब हुई जब वह समाजवादी पार्टी के गठन के लिए आजमगढ़ आए थे और शिब्ली कॉलेज में सम्मेलन के पश्चात डाक बंगले में ठहरे हुए थे उसके पहले कई प्रेस कॉन्फ्रेंसों में मुलाकात हुई थी लेकिन यह मुलाकात यादगार रही। इस वाकये को यहां लिखना उचित नहीं होगा क्योंकि मेरी वह मुलाकात कई तत्कालीन वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी का कारण बन गई थी।
नेताजी की अस्वस्थता को लेकर उनके शुभचिंतक जहां पहले से ही चिंतित थे वही आज सुबह जब उनके दुखद निधन की खबर मिली तो बहुत से लोग अपने और अपने आंसुओं को संभाल नहीं पाए। ऐसे मौके पर कबीरदास जी की 2 लाइनें याद आ रही हैं-
‘कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हंसे हम रोए।
ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए।।
और वाकई नेताजी सबको रुलाकर अनंत यात्रा पर चले गए।

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रिपोर्ट आज़मगढ़ लाइव

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